शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मेरा कल्पना-पुत्र

इस कविता की गति अत्यंत धीमी है, इसे जल्दबाजी में ना पढ़ जाना, अन्याय होगा.

शून्य में मैं जा रहा हूँ
कल्पना को साथ लेकर.
भूलकर भी स्वप्न में
जिस ओर ना आये दिवाकर.
मैं करूँगा उस जगह
निज कल्पना से तन-प्रणय.
जिस नेह से उत्पन्न होगा
काव्य-रूपी निज तनय.
मैं समग्र भूषणों से
करूँगा सुत-देह भूषित
और उर को ही करूँगा
प्रिय औरस में मैं प्रेषित.
मात्र उसको ही मिलेगी
ह्रदय की विरह कहानी
और उस पर ही फलेगी
कंठ से निकली जवानी
रागनी की, व्यथित वाणी.
भूलकर भी मैं उसे
ना दूर दृष्टि से करूँगा.
सृष्टि से मैं दूर
काव्य की नयी सृष्टि रचूँगा.

[औरस — समान जाति की विवाहिता स्त्री से उत्पन्न (पुत्र)]

4 टिप्‍पणियां:

Amit Sharma ने कहा…

संतान के प्रति आपके उत्कंठ प्रेम में आकंठ डूबी हुयी ये रचना हृदय में गहरे तक पैठ गयी है,
अगर मेरा आंकलन सही है तो संतान प्राप्ति की अग्रिम बधाई स्वीकार कीजिये :)

Avinash Chandra ने कहा…

मात्र उसको ही मिलेगी
ह्रदय की विरह कहानी

स्नेह के सागर का तल नहीं है क्या यह?
पिता के पराक्रमी नेह का शंखनाद करती है आपकी ये कविता...

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

Amit ji,
आपकी शुभेच्छाएँ कभी-न-कभी मेरे भविष्य को भी वात्सल्य रस से सराबोर करेंगी ही.
आपके आकलन मेरे आकलन से मेल खाते हैं इसलिये वे हर बार काव्य-रचनाओं के निर्माण से ही चुप लगा जाते हैं.
आपकी बधाई स्वीकार है परन्तु ईश्वर-इच्छा किसी और ग्रह पर भ्रमण कर रही है.

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत सुन्दर नादयुक्त कविता -
और उर को ही करूँगा
प्रिय औरस में मैं प्रेषित.
याद आया -आत्मा वै जायते पुत्रः