शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

अय पौन! कौन हो? सच कहना

ये कौन केश में हाथों की
उँगली सब डाले सहलाता?
ये कौन देह को छूकर के
चोरी-चोरी है भग जाता?

ये कौन गाल पर अधरों का
मीठा चुम्बन है दे जाता?
ये कौन ह्रदय से क्लेशों को
छीने मुझसे है ले जाता?

ये कौन मौन होकर अपनी
सुन्दर बातों को कह जाता?
अय पौन! कौन हो? सच कहना.
क्या हो मेरी प्यारी बहना?



शब्दार्थ :
भग — यहाँ भागने की क्रिया के रूप में अर्थ है. ['भग जाना' देशज प्रयोग.]
बहना — बहिन, भगिनी.
पौन — हवा, पवन

10 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

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बहुत मोहक कविता है। अपनी बहेन के लिए भाई का प्रेम स्तुत्य है। आपकी लेखनी से निकले इन सुन्दर भावों के लिए ' श्रद्धा ' से नतमस्तक हूँ।
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Avinash Chandra ने कहा…

उत्तर मिले तो बताईयेगा प्रतुल जी, न मिले तो भी कुछ अलौकिक-दैविक सा तो है...
धन्यवाद इसे लिखने का...

ZEAL ने कहा…

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बिन माँ की इस बच्ची को , एक भाई का अद्भुत प्रेम मिला ,
खुशियों की सौगातों संग , एक भाभी माँ का प्यार मिला।
अधरों के इस चुम्बन को , तुमने सम्मान दिया दिला ,
मिट गयी हमारी सारी उलझन , मन में रहा ना कोई गिला।

क्यूँ प्रश्न पूछते हो मुझसे , बोलो तुम हो मेरी बहना ?
कैसे उत्तर देगी वो, है लज्जा जिसका , प्यारा गहना ।

अनजान अभी तक थे जिससे वो राज तुम्हें बतलाती हूँ,
एक सदी हुई मन शुष्क ही था, जब आर्द्र हुआ, तुम रूठ गए।
अब मान भी जाओ कुछ दया करो , अब शेष है क्या, सब टूट गया ।

जाते-जाते अपना उत्तर , अब तुमको मैं बतलाती हूँ।
तुम भाई मेरे अनमोल रतन, मैं बहिन तुम्हारी शुष्क शिला ।

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प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अविनाश जी, उत्तर आने में देर नहीं लगी. दिव्या जी ने उत्तर जितना प्यारा दिया है किसी की भी आँखें नम हो जाएँ.

Rohit Singh ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Rohit Singh ने कहा…

वाह भाई प्रतुल कैसे एक ही कविता में दो महाकवियों के दर्शन क्षणिक ही सही, होते हैं ये तो ....मत करो स्वंय को शुष्क शिला....में दिखा दिया। कुछ-कुछ ऐसे जैसे किसी शास्त्रीय गायक को सुनते वक्त एक राग कमजोर सा महसूस होता लगा हो आपको की दूसरा राग इतनी उंचाई पर गायक ले जाता है की पूछो मत। ये उतार चढ़ाव बेहद ही सरलता औऱ शानदार तरीके से आय़ा है इनमें... मैं कलाकार तुम स्वयं कला तुम तोल वस्तु मैं स्वयं तुला.....आखरी पंक्तियां ‘’’’’’मंजुल मुख’’’’’वाली में पंक्तियां महाकवियों के आंगन के पास पहुंचने की कोशिश कर रही हैं।
शटल चरित्र में...कल-कल का स्वर....को अलग पढ़ने की जरुरत नहीं है। प्रवाह बना हुआ है और ये लाइन अगली तीन लाइनों का आरंभ बना हुआ है। अय पौन कौन हो? सच कहना। ...के बारे बस इतना की अंतिम लाइन में धोबी पाट दांव खेल गए आप।

Arvind Mishra ने कहा…

सुन्दर रचना !

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

प्रिय रोहित जी
आप मेरे काव्य-संवादों को अत्यधिक महत्व दे रहे हैं.... यह आपके प्रेम की अतिशयता है. मैंने मन के छिपे भावों को जग-जाहिर भर किया है.

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

अरविन्द जी
आप भाषाओं के अच्छे अनुवादक हैं. क्या जटिल मनोभावों का अनुवाद और उसकी व्याख्या की जा सकती है? मैं समझने में ही काफी समय गँवा देता हूँ.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

बहुत खूबसूरत कविता और वैसा ही सुखकारी संवाद - आपका और दिव्याजी का।
बधाई।