मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

दर्शन लोकपाल

'अनशन' है आरम्भ हमारा
'प्राशन' बिलकुल नहीं कराओ.
जब तक दर्शन लोकपाल बिल
पास न होगा, पास न आओ.


दर्शन में भी भेदभाव हो
तो कैसा अनुराग बताओ?
कटु तिक्त अथवा कषाय हो
दर्शन लोकपाल बिल लाओ.

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

वंचना

मैं सुप्त लुप्त था अपने से 
शैया पर दृग अंचल करके 
सहसा पिय ने स्पर्श किया 
पलकों पर, आई हूँ सजके 
लाई हूँ शीतलता तन में 
अब मुक्त करो नयनों को तुम 
कह बैठ गयी वह शिरोधाम 
शैया पर निज, होकर अवाम.

मैं सिहर उठा यह सोच-सोच 
अनदेखे ही पिय मुख सरोज 
अधरों का वार कपोलों पर 
अब होगा, लोचन बंद किये 
मैं पड़ा रहा इस आशा में 
बाहों के बंधन से बँधकर 
क्या उठा लिया जाऊँगा अब.

जब सोचे जैसा नहीं हुआ 
पलकों का द्वारा खोल दिया
पिय नहीं, अरे वह पिय जैसी 
दिखती थी केवल अंगों से. 
मैं समझा, पलकें स्वयं झुकीं 
वह आ बैठी बेढंगों से. 

पर पिय तो मेरी स्वीया सी 
जो नित प्रातः करती अर्चन
चरणों पर आकर आभा से 
कर नयन मुक्त, करती नर्तन.
जो आई थी लेकर दर्शन
झट हुआ रूप का परिवर्तन.
वो! सचमुच में थी विभावरी
थी उदबोधित*-सी निशाचरी.

नेह को न छल सकता छल भी 
चाहे छल में कितना बल भी 
हो न सकता उर हरण कभी 
क्योंकि निज उर तो पिय पर ही.
__________________
* उदबोधिता = एक नायिका जो पर-पुरुष के प्रेम दिखलाने पर उस पर मुग्ध होती है.

[आवृत काव्य — रचनाकाल : १७ फरवरी १९९१]

रविवार, 11 दिसंबर 2011

छिद्र-प्रकाश

दिवस का होकर रहे प्रकाश 
नहीं किञ्चित मन हुआ निराश 
काश! अंतरतम में भी आ'य 
छींट-सा छोटा छिद्र-प्रकाश. 

द्वार कर लिये दिवा ने बंद 
अमित अनुरागी मन स्वच्छंद 
द्वार-संध्रों से सट चिल्ला'य 
"खोल भी दो ये द्वार बुलंद".

'प्रशंसा' से प्रिय 'निंदक' राग
'दिवस' से गौर 'तमस' अनुराग 
'सुमन' कैसे पहचाना जा'य
विलग होकर 'स्व' पंक्ति पराग.

बंद हैं किसके लिये कपाट?
विचरते जो पथ देख सपाट?
आप भी तो आते हो ना'य  
बैठने, छिद्रों वाली खाट.

* ना'य .... नहीं

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

अन्तर्द्वन्द्व

यह मेरे काव्य-अभ्यास के दिनों की एक कविता है .... "अन्तर्द्वन्द्व". इसकी रचना १९९० के मध्य में हुई, यह अभी तक छिपी हुई थी... मेरे अतिरिक्त शायद ही किसी ने पढ़ा हो!


"दिन नियत कर हम मिलेंगे
चांदनी रात होने पर.
जाने साथ बने कैसा
स्नेहमयी बात होने पर."

"चुनी चांदनी ही क्यूँ?
अंधेरी रात भी होती."
- मेरे मन के विचारों यूँ,
तुम न आवाज दो थोती.

शीतांशु की रश्मियों से
शीत मिलती शील को.
शशि बिन बलते दीयों सा
ताप देता शील को.

"ऐ! आप रातों के चक्कर में
दिवा को भूल गए क्या?"
- ओह हो! फिर आवाज दी,
न मानोगे तुम जिया?

दिवा में देखता समाज
शंका से तिरछी दृष्टि कर.
रवि भी देखता दारुण दृगों से,
दीप्ति देकर सृष्टि पर.

"क्या आप रोक न पाते
मिलन के उर विचारों को?"
- मेरी तरफ से दूर करो,
तुम इन दुर्विचारों को.

मेरे तो आप ही हो मित्र,
बुरा न मानूँ बातों का.
मेरा प्रशस्त करो तुम पंथ
दर्द न होवे घातों का.

बने घट कुम्हार घातों से,
देता उर, सार पाठों का -
"मिलन हो मात्र बातों का,
न बाहों का, न रातों का."