गुरुवार, 3 मई 2012

भानु-भामिनी

वियत श्याम घन की प्रतूलिका
पर लेटी पिय भानु-भामिनी
सोच रही बदला लूँगी मैं,
अभ्यागत जो बनी यामिनी.
नित वसुधा के रसिक मनों पर
कंज खिला कंदर्प साथ में
नंग अंग को किये हुए वह
नाचा करती अंध रात में.
मैं देखूँगी द्विज-दर्पण से
दर्पक सह निर्लज्ज यामिनी.
क्या मेरे प्रियतम कवि की भी
बनना चाहे तिया, कामिनी.
शब्दार्थ :
वियत - आकाश; प्रतूलिका - गद्दा; अभ्यागत - अतिथि;
भामिनी - क्रोधोन्मत्त स्त्री; यामिनी - रात्रि; कंज - कमल;
कंदर्प - कामदेव; अंध -गहन; दर्पक - कामदेव/ अभिमानी;
द्विज-दर्पण - चन्द्रमा रूपी दर्पण; तिया - स्त्री/पत्नी.