शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

याचना

मुषित आपके ही सारे
ष भाव हमारे कंटक में
सेही बन तुम करते बचाव
हिक निज मन को दे चकमे।

सायक बन बैठे भाव सभी
रि बनी आज कविता तरंग
द दलित हुए सपने मेरे
राका भर नाचा था अनंग।

नु लिए हाथ कटि में निषंग
हुत करा हृदय कर स्वप्न भंग
खेट हमारा करने को
तुर बना, पड़ा पीछे अनंग।

ध्या! मनुहार करूँ तुमसे
क्षत कर दो कवि का वचन भंग
मादकता मय सारे विचार
र्तक नयनों से करो नंग।

हीं हीं करता है हास स्वयं
र्षक संयम पर डाल पंक
जगुणी हो गई वाक् कलम
पातक मन को दे कौन अंक ?

, सतोगुणी सम सुधा सवसे!
गेही समान आचरण स्वयं
पारस स्पर्श कर दो कलाचि
मैं स्वर्ण बनूँ, हों पाप अलम।
 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

दर्शन-प्राशन



लम्ब उदर के हो जाने से 
कर ना पाता हूँ जो आसन 
उसे तुरत करती है बेटी 
सुन्दरतम ये 'दर्शन प्रासन'*।  


कर्मकाण्ड वाला क्रम पूजन 
आता है किञ्चित जो रास न 
उसे नक़ल करती है बेटी 
मनमोहक ये 'दर्शन प्रासन'।


ये है उचित और वो अनुचित 
देता रहता हूँ जो भासन* 
उसे ध्वस्त करती है बेटी 
चख-उद्घाटक 'दर्शन प्रासन'।


* प्रासन = प्राशन 
* भासन = भाषण 

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

संन्यासी सुत

सौंदर्य सुधा घट में भरते 
हे देव, आप क्योंकर हाला 
क्यों बना रहे कोमल तन को 
बालाओं के बंकिम भाला। 


था हुआ कभी आहत मैं भी 
है पीर अभी उसकी भारी 
मैं निर्माता बन हटा तभी 
तो लगा आपने ली बारी। 


अब तलक ओट से देखी थी 
अवगुंठनमय अवनत नारी 
विपरीत लगा प्रतिघात भवन 
में देखी जब सूरत प्यारी। 


हे देव, जानता हूँ मैं सब 
तुममें मुझमें है भेद बहुत 
तुम संयम के बुत हो तो मैं 
संन्यासी संयम का हूँ सुत। 


सोमवार, 8 सितंबर 2014

भाव-स्फोट

जब नदी उफान पर होती है, किनारे तोड़कर अपने आसपास के क्षेत्रों में तबाही लाती है तब केवल एक ही उपाय बचता है - उसके शांत होने की प्रतीक्षा।
वैसे ही , जो परस्पर आत्मीय होते हैं या लम्बे समय तक एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहे होते हैं अथवा रक्त सम्बन्धी होते हैं। 'भाव' के स्तर पर उनमें भी भयावह उठा-पटक हो जाती है, क्रोध मन-मस्तिष्क की समस्त विकृतियाँ उगल रहा होता है, सम्बन्ध बिगड़ते हैं, तब मात्र एक ही उपाय रह जाता है - स्थितियों के सामान्य होने की प्रतीक्षा।
'पुरानी डायरी' के पन्ने पलटते हुए आज मैंने 'समय विशेष' में बने भाव के दर्शन किये --- [यहाँ आपको संचारी भावों की मूसलाधार बारिश होती दिखेगी ३३ में से अधिकांश भावों का आना-जाना बहुत तीव्रता से हुआ है।]
 
 
स्वसा सम _______,
नमस्ते ! आपका स्मरण निरंतर करता हूँ। आपकी शिष्ट मधुरम क्षणिक किलक हृत में आई शुष्कता को दूर करती है, मस्तिष्क में बसे अहंकार पर चोट करती है।
अति व्यस्त समय में भी आप जटिल विचारों और तनावों के बीच कौंधकर 'चोट पर मरहम' सा आराम देते हो। आपको प्रतीक्षा रही इस पत्र की किन्तु इसे पत्र रूप देने में मेरी कार्य व्यस्तता ही व्यवधान बनी रही। अब इसे दूर करने की शीघ्रता पर विचारता हूँ।
हर 'माँ' माँ होती है। 'पिता' भी पिता होते हैं। दोनों आदरणीय हैं। दोनों का अपमान मेरी कल्पना में भी नहीं हो सकता किन्तु मेरा स्वभाव विश्वासों और मान्यताओं के अंधत्व पर व्यंग्योक्ति करने का रहा है। सो छोड़े नहीं छूटता। यदि मेरे स्वभाव से किसी को पीड़ा पहुँचती है तो मेरे सम्पूर्ण चरित्र और कार्यों पर दृष्टि डाल मूल्यांकन करें। अन्यथा मैं बार-बार बड़ों की कोपदृष्टि से ग्रस्तता रहूँगा।
यहाँ मेरे जन्मपिता और माता द्वारा माता तुल्य अन्य माँ के सम्मान को ठेस पहुँची। जीवन पर्यन्त क्षमा माँगू तो भी ग्लानि नहीं मिटेगी।
इसी अनुभूति के साथ …
आपका भ्रातसम
_______
 
जो प्रिय थे बालपन से अब तलक
काल्पनिक विलगाव जिनका असह्य था
गर्व होता था कि वे माता-पिता
हैं हमारे, मैं उन्हीं का पुत्र हूँ।

 
आज स्मृत होता सभी उनका किया
एक झटके में घृणा जिनसे हुई।
ईश ! उनकी बुद्धि में सबके प्रति
प्रेम, ममता, विनम्रता का भाव दो।
 
अब नहीं वो भाव मन में घूमता
ग्लानिवश छिपता फिरे अथवा कहीं।
देह का व्रण औषधि से मिट गया
किन्तु हृत का व्रण कभी न शुष्क हो। "