शनिवार, 22 मार्च 2014

श्वास का स्यंदन

दुर्दान्तता है प्रेम की
उद्दाम उच्छल आग में
चल रहा है श्वास का
स्यंदन बिना रुके हुए.
धँस रहे हैं चक्र दोनों
स्नेह-शुभ्र-पंक में
हाँकता हूँ मदन-अश्व
हृदय की लगाम से.
म्लान मुख हो गया
उर मदन-अश्व हाँकते
किन्तु स्नेह-पंक से
स्यंदन ज़रा हिला नहीं.
श्लथ हुई हैं इन्द्रियाँ
संस्रस्त पूर्ण तन-वदन
पर स्मृति स्नेह की
स्यंदन को बढ़ा रही.